विपक्ष का पाखंड और कुत्र रुदन।
हे मित्रों श्रीमद्भागवत में लीलाधर परमयोगी श्रीकृष्ण ने पाखंडी प्रवृति को समझाते हुए कहा कि हे अर्जुन सुनो :-
द्वितीय अध्याय “कर्मयोग” श्लोक ६
कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्।,इन्द्रियान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥६॥
अर्थात जो अपनी कर्मेन्द्रियों के बाह्य घटकों को तो नियंत्रित करते हैं लेकिन मन से इन्द्रियों के विषयों का चिन्तन करते हैं, वे निःसन्देह स्वयं को धोखा देते हैं और पाखण्डी कहलाते हैं।
आइए इसे समझने का प्रयास करते हैं।
आज सम्पूर्ण विश्व अयोध्या में होने वाले प्रभु श्रीराम के प्राण प्रतिष्ठा समारोह को लेकर अति उत्साहित और आह्लादित है। सभी इस समारोह को सफल बनाये रखने के लिए उत्साह और उमंग से भरकर अपना अपना योगदान दे रहे हैं। पर भारत में कुछ राजनीतिक पार्टियां और उनके लोग इस समारोह को सफल ना होने देने या अपमानित करने का भरपूर प्रयास कर रहे हैं।
स्वर्गीय श्री बाला साहेब ठाकरे के सिद्धांतो को धूल में मिलाकर अपने समाज में ही लज्जाजनक स्थिति को प्राप्त हो जाने वाले लोग कह्ते हैँ कि “भगवान श्रीराम का अपहरण कर लिया गया है।” एक अन्य पार्टी का क्रिप्टो क्रिस्चियन नेता कहता है कि “राम क्षत्रीय था और मांसाहारी था “। एक अन्य पार्टी का नेता कहता है कि “राम मन्दिर गुलाम मानसिकता का प्रतीक है”। एक अन्य नेता का कहना है कि “५०० वर्षों के पश्चात मनुवाद कि वापसी है राम मन्दिर”। एसे अनगिनत अनर्गल प्रलाप और मिथ्या प्रवंचना आपको सुनने को प्राप्त हो जाएगी ।
अब प्रश्न यह है मित्रों कि:-
कौन हैं ये लोग? कहाँ से आते हैं? और इस प्रकार का असभ्य आचरण कैसे कर पाते हैं?
तो इसके लिए मानव शरीर में व्याप्त प्रमुख इंद्रियों को जानने का प्रयास करना होगा। जैसा कि हम सब जानते हैँ कि मनुष्य के शरीर में इंद्रियां १४ है। पांच ज्ञानेंद्रियां- आंख, कान, नाक, जीभ और त्वचा; पांच कर्मेंद्रियां- हाथ, पैर, मुंह, गुदा और लिंग और चार अंतःकरण- मन बुद्धि चित्त और अहंकार।
श्रीमद्भागवत के १५ वे अध्याय के श्लोक संख्या ९ में इन्हें श्रीकृष्ण ने कुछ इस प्रकार बताया है।
श्रोत्रं चक्षुः स्पर्शनं च रसनं घ्राणमेव च ।,
अधिष्ठाय मनश्चायं विषयानुपसेवते ॥९॥
कान, आंख, त्वचा, जिह्वा और नासिका के इन्द्रिय बोध जो मन के चारों ओर समूहबद्ध हैं, के साथ देहधारी आत्मा इन्द्रिय विषयों का भोग करती है।
पांच ज्ञानेंद्रियां-
१:-आँख जिसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध दृश्य अर्थात दृष्टि से होता है। आंख तो प्रत्येक सजीव के पास होती है जिस पर अक्सर ही मन का नियन्त्रण रहता है। इसीलिए व्यक्ति अपने मन के वशीभूत होकर विधानसभा में भी बैठकर पोर्न मूवी देखता है या फिर लोकसभा में बैठकर आंख मारता है किसी नारी को “फ्लाइंग किस” देता है या फिर कोई नारी “लकिंनी राक्षसी” की भाँति अट्टहास करती हुई दिखाई पड़ती है। यदि आप अपने नेत्र पर से मन का नियन्त्रण हटा कर अपने बुद्धि या चित्त का नियन्त्रण स्थापित कर लेता है तब उसे यथार्थ से मुलाकात होती है और फिर वो अपने चक्षु का उपयोग किसी के खुशी को देखकर खुश होने और किसी के दुःख में सम्मिलित होकर उसे सांत्वना देने के लिये करता है। अपने दृष्टि पर बुद्धि और चित्त के द्वारा नियन्त्रण स्थापित करने वाला व्यक्ति ही अध्ययन और अध्यापन के क्षेत्र में अग्रणी स्थान प्राप्त करता है और समाज को शिक्षित और सुसंस्कृत करने में अपना सम्पूर्ण योगदान दे पाता है।
श्रीमद्भागवत के १५ वे अध्याय “पुरुषोत्तम योग” मे गिरधारी प्रभु श्रीकृष्ण स्वयं कह्ते हैं:-
श्लोक १०
उत्क्रामन्तं स्थितं वापि भुञ्जानं वा गुणान्वितम् ।
विमूढा नानुपश्यन्ति पश्यन्ति ज्ञानचक्षुषः ॥१०॥
अर्थात अज्ञानी आत्मा का अनुभव नहीं कर पाते जबकि यह शरीर में रहती है और इन्द्रिय विषयों का भोग करती है और न ही उन्हें इसके शरीर से प्रस्थान करने का बोध होता है लेकिन वे जिनके नेत्र ज्ञान से युक्त होते हैं वे इसे देख सकते हैं।
श्लोक ११
यतन्तो योगिनश्चैनं पश्यन्त्यात्मन्यवस्थितम्।
यतन्तोऽप्यकृतात्मानो नैनं पश्यन्त्यचेतसः ॥११॥
अर्थात भगवद्प्राप्ति के लिए प्रयासरत योगी यह जानने में समर्थ हो जाते हैं कि आत्मा शरीर में प्रतिष्ठित है किन्तु जिनका मन शुद्ध नहीं है वे प्रयत्न करने के बावजूद भी इसे जान नहीं सकते।
२:- कान (श्रवण) इसका प्रत्यक्ष सम्बन्ध श्रवण अर्थात सुनने से है। जब तक यह ज्ञानेन्द्रिय मन और अहंकार के वशीभूत होता है, व्यक्ति स्वयं के लिए केवल अच्छी बातों को सुनने को उत्सुक रहता है। वह केवल उसके मन को क्षणिक सुख प्रदान करने वाली चर्चाओं में भाग लेने को मचलता है। एसा व्यक्ति अपनी स्वस्थ आलोचना को भी अपना अपमान समझ अहंकार से ग्रसित हो जाता है। एसा व्यक्ति अपनी झूठी और स्वार्थवश प्रसंशा करने वालों से घिरा रहना पसन्द करता है जो उसके नैतिक, चारित्रिक और समाजिक पतन का कारण बनता है।
३:- त्वचा (स्पर्श):- ये इंद्रिय सर्वाधिक प्रभावित करने वाली होती है। इस का सम्बन्ध चंचल मन के द्वारा अधिकांशत: काम और वासना से जोड़ दिया जाता है। इस इंद्रिय के वशीभूत जीव भोग और विलास की चाहत में पतित अवस्था को प्राप्त हो जाता है। स्पर्श से आनंद की प्राप्ति होती है और अनियन्त्रित स्पर्श की चाहत व्यक्ति के चरित्र का पतन कर देती है और असमाजिकता तथा अनैतिकता के दलदल में धकेल देती है। एक कामना से कई कामनाओं का जन्म होता है और यह प्रक्रिया निरन्तर चलती रहती है और कामनाओं के भवर जाल में उलझा व्यक्ती उचित अनुचित का परख नहीं कर पाता और संकट तथा संघर्ष की ओर बढ़ चलता है।
श्रीमद्भागवत कर्मयोग श्लोक ३७
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः।,
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम् ॥३७॥
परमात्मा श्रीकृष्ण कहते हैं-अकेली काम वासना जो रजोगुण के सम्पर्क में आने से उत्पन्न होती है और बाद में क्रोध का रूप धारण कर लेती है, इसे पाप के रूप में संसार का सर्वभक्षी शत्रु समझो।
श्रीमद्भागवत कर्मयोग श्लोक ३८
धूमेनावियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च ।,
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम् ॥३८॥
परम योगी प्रभु श्रीकृष्ण कहते हैं जैसे अग्नि धुएँ से ढकी रहती है, दर्पण धूल से आवृत रहता है तथा भ्रूण गर्भाशय से अप्रकट रहता है, उसी प्रकार से कामनाओं के कारण मनुष्य के ज्ञान पर आवरण पड़ा रहता है।
श्रीमद्भागवत कर्मयोग श्लोक ४०
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।,
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम् ॥४०॥
परमेश्वर श्रीकृष्ण अर्जुन को उपदेश देते हुए कह्ते हैं कि हे पार्थ इन्द्रिय, मन और बुद्धि को कामना की प्रजनन भूमि कहा जाता है जिनके द्वारा यह मनुष्य के ज्ञान को आच्छादित कर लेती है और देहधारियों को मोहित करती है। और कामरूप धारी शत्रु का दमन करने हेतु उपाय बताते हैं
श्रीमद्भागवत कर्मयोग श्लोक ४३
एवं बुद्धः परं बुद्ध्वा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।,
जहि शत्रु महाबाहो कामरूपं दुरासदम् ॥४३॥
इस प्रकार हे महाबाहु! आत्मा को लौकिक बुद्धि से श्रेष्ठ जानकर अपनी इन्द्रिय, मन और बुद्धि पर संयम रखो और आत्मज्ञान द्वारा कामरूपी दुर्जेय शत्रु का दमन करो।
४:- नाक अर्थात सुगंध:- ये इंद्रिय भी कामनाओं को जन्म देने वाले सन्योग उत्पन्न करती है। इसमें भी मानव सुगंधित वातावरण के वशीभूत होकर उसमें क्रिया हेतु आसक्ति के जाल से उलझ जाता है। आसक्ति व्यक्ति के अंदर क्रोध को जन्म देती है और क्रोध व्यक्ति के विवेक को हर लेता है और फिर व्यक्ति अंधकार में प्रवेश कर जाता है।
५:- जिह्वा अर्थात स्वाद:- ये इंद्रिय भी सुस्वाद की ओर आकर्षित करती है, अच्छे से अच्छे स्वाद वाले आहार को ग्रहण करने हेतु मन जिह्वा को सदैव प्रेरित करता है। जिह्वा और कंठ के आपसी सामंजस्यपूर्ण व्यवहार से वाणी को आयाम मिलता है। व्यक्ति अपने जिह्वा पर नियंत्रण ना कर पाने की अवस्था में अप्रिय और अपशब्दों का उपयोग करता है। स्वाद के चक्कर में व्यक्ति अपने स्वास्थ्य को व्याधियों के चक्रव्यूह में डाल देता है और संकट तथा संघर्ष को जन्म दे देता है। इसी प्रकार वाणी से असंसदीय और अपशब्दों की ध्वनि उत्पन्न कर अपयश का शिकार हो जाता है।
अब आते हैं मन पर :- चक्षु, नासिका, त्वचा, श्रवण इंद्रिय और जिह्वा ये इस शरीर रूपी रथ के पाँच अश्व हैं और “मन” उसका सारथी होता है। ये मन अत्यंत चंचल, चपल और चतुरंगिय होता है। जब इन पांचों ज्ञानेन्द्रियों पर मन का नियंत्रण होता है तो इन्हें भिन्न भिन्न कामनाओं के वशीभूत होना पड़ता है जैसे काम, क्रोध,मद,लोभ,मोह,ईर्ष्या और वासना इत्यादि। जिस प्रकार एक हाथि का शिकार करने के लिए आखेटक पालतू हथिनी या फिर नकली हथिनी का उपयोग करते हैं, ताकि हाथि लोभ में फंस जाये उसी प्रकार मन के नियन्त्रण में ज्ञानेन्द्रियों के आ जाने पर व्यक्ति भी लोभ और मोह के चक्कर में फंसकर संकट और संघर्ष को निमन्त्रण दे देता है।
हमारा विपक्ष और इसके नेता भी अपने मन पर नियन्त्रण ना रख पाने के कारण अपने अधोगति को प्राप्त हो रहे हैं।आज विपक्ष के एक दो नेताओं को यदि अपवाद स्वरूप छोड़ दें तो कोई एसा नेता नहीं है जिसके चरित्र पर दाग नहीं है। कुछ तो करागार की शोभा भी बढ़ा चुके हैं। विपक्ष के ये नेता अपने मन और अहंकार के नियन्त्रण में होने के कारण ही सत्य, धर्म, सद्कर्म और प्रकाश से दूर असत्य, अधर्म, अंधकार और बदकर्म में उलझकर अपने जीवन का सर्वनाश कर रहे हैं।
यदि इन्होंने अपने मन पर नियंत्रण कर लिया होता तो ये अपने अहंकार की मर्यादा का उलंघन नहीं करते और पांचो ज्ञानेन्द्रियों पर इनका वश होता और फिर ये उचित और अनुचित का यथार्थ विश्लेषण कर पाते।
महाप्रभु योगेश्वर श्रीकृष्ण ने मन पर नियन्त्रण करने हेतु स्पष्ट रूप से आह्वान किया है।
श्रीमद्भागवत ध्यानयोग श्लोक ५
उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् ।
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः ॥५॥
प्रभु कहते हैं मन की शक्ति द्वारा अपना आत्म उत्थान करो और स्वयं का पतन न होने दो। मन जीवात्मा का मित्र और शत्रु भी हो सकता है।
प्रभु श्रीकृष्ण आगे कह्ते हैं
श्रीमद्भागवत ध्यानयोग श्लोक ६
बन्धुरात्मात्मनस्तस्य येनात्मैवात्मना जितः ।
अनात्मनस्तु शत्रुत्वे वर्ते तात्मैव शत्रुवत् ॥६॥
जिन्होंने मन पर विजय पा ली है, मन उनका मित्र है किन्तु जो ऐसा करने में असफल होते हैं मन उनके शत्रु के समान कार्य करता है।
श्रीमद्भागवत कर्मयोग श्लोक १६
एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।,
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥१६॥
हे पार्थ! जो मनुष्य वेदों द्वारा स्थापित यज्ञ कर्म के चक्र का पालन करने के अपने दायित्व का निर्वाहन नहीं करते, वे पाप अर्जित करते हैं, वे केवल अपनी इन्द्रियों की तृप्ति के लिए जीवित रहते हैं, वास्तव में उनका जीवन व्यर्थ ही है। विपक्ष यही तो कर रहा है।
लीलाधर गोवर्धनधारी श्रीकृष्ण पुनः कह्ते हैं:-
श्रीमद्भागवत कर्मयोग श्लोक ७
यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन।,
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥७॥
हे अर्जुन! लेकिन वे कर्मयोगी जो मन से अपनी ज्ञानेन्द्रियों को नियंत्रित करते हैं और कर्मेन्द्रियों से बिना किसी आसक्ति के कर्म में संलग्न रहते हैं, वे वास्तव में श्रेष्ठ हैं।
यही श्रेष्ठता तो आदरणीय श्री नरेंद्र दामोदर दास मोदी जी को इन विपक्षी नेताओं से अलग करती है और समस्त विश्व में सर्वाधिक लोकप्रिय बनाती है।
श्रीमद्भागवत मोक्ष सन्यास योग श्लोक ४९
असक्तबुद्धिः सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृहः।,
नैष्कर्म्यसिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति ॥४९॥
महाप्रभु श्रीकृष्ण कह्ते हैं वे जिनकी बुद्धि सदैव प्रत्येक स्थान पर अनासक्त रहती है, जिन्होंने अपने मन को वश में कर लिया है जो वैराग्य के अभ्यास द्वारा कामनाओं से मुक्त हो जाते हैं, वे कर्म से मुक्ति की पूर्ण सिद्धि प्राप्त करते हैं। इसी मार्ग पर चलने वाले आदरणीय श्री नरेंद्र मोदी जी हैं और विपक्ष सर्वथा इसके विपरीत मार्ग पर है।
जिस प्रकार मधुमक्खि पुष्प पुष्प विचरने के पश्चात पराग कणों का संचयन करती है और फिर उससे अपने छत्ते में शहद का निर्माण करती है परंतु उस शहद का उपभोग मधुहा करता है, मधुमक्खि स्वयं नहीं कर पाती अतः व्यक्ति को भी अपना जीवन और समय भौतिक सुख साधनों को एकत्र करने में नहीं खर्च करना चाहिए अपितु उसे अपना समय स्वयं (अर्थात अपने अंदर की शुद्ध चेतना अर्थात आत्मा)को जानने और समझने में खर्च करना चाहिए। पर विपक्ष इस गूढ़ विषय को समझ ही नहीं पाता।
श्रीमद्भागवत कर्मयोग श्लोक ४२
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः।,
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥४२॥
देवकी के लाला कहते हैं “इन्द्रियाँ स्थूल शरीर से श्रेष्ठ हैं और इन्द्रियों से उत्तम मन, मन से श्रेष्ठ बुद्धि और आत्मा बुद्धि से भी परे है।”
वो अविनाशी और योगमाया से स्वयं को समय समय पर प्रकट करने वाले परमात्मा श्रीकृष्ण इसे और स्पष्ट करते हुए कह्ते हैँ:-
श्रीमद्भागवत ध्यानयोग श्लोक ७
जितात्मनः प्रशान्तस्य परमात्मा समाहितः।,
शीतोष्णसुखदुःखेषु तथा मानापमानयोः ॥७॥
वे योगी जिन्होंने मन पर विजय पा ली है वे शीत-ताप, सुख-दुख और मान-अपमान के द्वंद्वों से ऊपर उठ जाते हैं। ऐसे योगी शान्त रहते हैं और भगवान की भक्ति के प्रति उनकी श्रद्धा अटल होती है। विपक्ष को अपना पाखंड समाप्त करते हुए अपने ज्ञानेन्द्रियों पर नियन्त्रण करने वाले “मन” पर नियंत्रण करना चाहिए ताकि वो सार्वजनिक जीवन में उचित-अनुचित में भेद कर सके और समाज में सम्मानजनक स्थान प्राप्त कर सके।
लेखक:-नागेन्द्र प्रताप सिंह (अधिवक्ता)
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